आओ गांव चले ..तीस साल पहले " धूला गांव कैसा था।बिशन सिंह जी शेखावत" का पत्रिका में "धूला गांव पर लिखा आलेख। अपने स्वामी जयपुर...
आओ गांव चले
..तीस साल पहले " धूला गांव कैसा था।बिशन सिंह जी शेखावत" का पत्रिका में "धूला गांव पर लिखा आलेख।
अपने स्वामी जयपुर के महाराजा माधव सिंह प्रथम के लिए धूला की तीन पीढ़ियों ने शत्रु सेना का वीरता पूर्वक प्रहार करते हुए बलिदान किया था। जयपुर जिले में ही नहीं अपितु राजस्थान के रक्त पिपासु युद्ध में बहुत कम ही घटनाएं धूला के स्वर्णिम इतिहास की तरह प्रकाश में आई है।
मावंडा मंडोली के पास भीषण संग्राम विक्रम संवत 1828 में हुआ था। धूला के राव दलेल सिंह इसके सेनापति थे। इस युद्ध में दलेल सिंह उनके लड़के लक्ष्मण सिंह एवं पोते रघुनाथ सिंह ने भाग लिया था। यह वह युद्ध था जिसमें शत्रु सेना ने विपक्षी सेना के वीरों के सर काट काट कर बोरों में भरे लिए थे। इस युद्ध में दादा बेटे ने यह मोह नहीं दिखाया कि उनके बाद क्या होगा। बाप ,बेटा ,पोता तीनों ने एक ही युद्ध में हंसते-हंसते वीरता पूर्वक लड़ते हुए सर कटाया ।इस बलिदान को जयपुर में कभी नहीं बुलाया और अगले युद्धों में धू ला को हरावल में आगे के मोर्चे पर रहने का बड़ा सम्मान मिला।
जयपुर से 25 किलोमीटर दूर जमवारामगढ़ तहसील के गांव में ऊंचे ऊंचे पहाड़ों के शिखर पर ब अजय दुर्ग बना है। प्राकृतिक एवं सामरिक दृष्टि से सुरक्षित धूला नए जमाने में पहाड़ों की गोद से उचक उचक कर बाहर निकलना चाहता है ।पहले सुरक्षा की दृष्टि से चैन की बंशी बजती थी। शक्तिशाली राजा भी इसकी तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकता था। युद्ध में बलिदान देने वाले योद्धाओं की स्मृतियों की शानदार छतरियां खड़ी हुई है। छत्रियों में दादा दलेल सिंह पुत्र लक्ष्मण सिंह एवं पोते रघुराज सिंह की बलिदान कथाएं छुपी हुई है।
धूला जयपुर महाराजा मानसिंह प्रथम के चौथे बेटे दुर्जन सिंह को मिला हुआ था। दुर्जन सिंह भी मान सिंह की तरह पराक्रमी था और युद्धों में भाग लेने में अपनी शान समझता था ।
बादशाह अकबर के शासनकाल में कुंवर दुर्जन सिंह ने अनेक लड़ाईयों में भाग लिया तथा अपने पिता की आज्ञा से बंगाल में कूचबिहार के राजा की रक्षा करते हुए अपने पिता के सामने ही वीरता पूर्वक प्राण दिए थे। दुर्जन सिंह की परंपरा को उनके उत्तराधिकारी हमेशा वैसे ही निभाते रहे।
पहाड़ पर दुर्जन सिंह का बनाया हुआ गढ़ और परकोटा दिखाई देता है। जो इस समय धीरे-धीरे धराशायी होता जा रहा है।
लक्ष्मण रेबारी से बात हुई, हष्ट पुष्ट काली शानदार मूछें सर पर लाल टूल का साफा ऐसे पुष्ट शरीर वाले आजकल कम ही दिखाई देते हैं ।उसने बताया कि धू ला में 30 रेबारियों के परिवार है। अच्छे शरीर वाले नौजवान हैं। रेबारी परिवारों के पास ऊंटों के 30 टोले हैं तथा यही इनका परंपरागत व्यवसाय है ।बातचीत में लक्ष्मण रेबा री ने बताया कि अब ऊंटनी का दूध भी डेरी वाले खरीदने लगे हैं।इस कारण उनकी माली हालत ठीक होने लगी है। जयपुर के लोगों को शायद ही यह जानकारी हो कि वे ऊंटनी का दूध भी पीते हैं। डेयरी से उन्हें सिर्फ डेढ़ 2 रुपए किलो भाव की ही कीमत मिलती है। रोजाना ऊंटनीयों का 10 मण दूध डेयरी को देते हैं ।रेबारियों की बस्ती ठीक पहाड़ के नीचे है तथा तालाब के पास वाले मैदान में इनके टोले रात को बैठते हैं । ऊंटों को चराने के लिए जंगलों का अभाव है। राज्य सरकार ने 20 सूत्री कार्यक्रम के नाम पर उनके परिवारों का आज तक एक भी पैसे की सहायता नहीं की है। उनका कहना था कि सैकड़ों वर्षो से ऊंटों को बैठने की जगह को दूसरों को बेच दिया गया तो वह बर्बाद हो जाएंगे । रेबारियों के पास एक बीघा भी खेती करने को जमीन नहीं है।
रेबारी औरतों मर्दों का वही लिबास है, जो सिरोही जालौर बाड़मेर और पाली के रेबारी जाति का है ।
धूला में सफेद पत्थर की खाने हैं। पहले आसपास शेर, सांभर और वन्यजीव खूब रहते थे। रात्रि में जाना आसान नहीं था। 1977 में बिजली आई उसके बाद उजड़ता गांव फिर से आबाद होने लगा है। प्रवेश द्वार के बाहर एक भी मकान नहीं बना था अब कुछ दुकानें बन गई है ।
पासवान जी का शानदार ऊंची पेडी का मंदिर और इसके पास पानी का कुआं है, जहां आज भी पनघट का सौंदर्य दिखाई देता है ।गांव में नल योजना आने के बाद भी औरतें पनघट से पानी लाती है । पानी लेने वालों की चहल-पहल कुए के आस पास रहती है। गांव के तालाब में इस समय पानी की एक बूंद नहीं है । धू ला ग्राम पंचायत में जगमालपुरा, जयसिंहपुरा, सुंदरपुरा, शेखावाटियो कि ढाणी, बाड़ा की ढाणी और मालियों की ढाणी है।
रामेश्वर संगीतकार ने बताया कि धू ला के लोग बाहर चले गए। खंडेलवाल महाजनों में बडाया, बोहरा, मेठी व कूलवाल है। साधारण दुकानदारों के अलावा जयपुर में व्यवसाय करते हैं।
20 सूत्री कार्यक्रम का लाभ नहीं मिल रहा। यह 30 वर्षीय जुम्मा मुसलमान और राजेंद्र कुमार की दशा को देखकर जाना जा सकता है । दस वर्ष का नन्हा सा राजेंद्र कुम्हार दोनों पैरों से अपंग है। पढ़ने की इच्छा होने से उसका पिता कजोड़ कमर में बैठाकर स्कूल छोड़ने जाता है और छुट्टी होने पर वापस लाता है। इन दोनों ही विकलांगों को सरकार से अभी तक पेंशन के नाम पर एक पैसा नहीं दिया है। मालियों के 50 घर है किंतु पैदावार नहीं होने से आधे से अधिक बेहाल है। प्रताप माली डूंगर के पास की ढाणी में बैठा इसी बात की चिंता कर रहा था कि बैंक वाले कर्जा वसूली के लिए आएंगे तो वह उन्हें कैसे चुकाएगा । प्रभात ने बताया कि ऋण वसूली के लिए किसानों को मुर्गा बनाने मारपीट की घटनाओं के बाद वे पूरी तरह से डरे हुए हैं । वह बोला खाबा का सांसा पड़ रहा है ।
गंगाराम मीणा की बेटी की शादी इसी दिन हो रही थी। मीणाओं में परंपरागत शादी की रस्म रिवाज काफी बदल गए हैं। बेटी के हथलेवा में 19 हजार दिए तथा लड़की को घड़ी साइकिल रेडियो स्टील की अलमारी दी । बींद परंपरागत जामा पहने नहीं आया वह पैंट शर्ट पहने हुए था। 150 आदमी बरात में आए थे। सभी के लिए पलंग और छोलदारी की व्यवस्था थी। फेरे कराने वाले पंडित ने बताया कि 4 घंटे तक मुहुर्त से फेरे हुए तथा पंडित को 51 रुपए दिए गए ।
मीणाओं की शादी में खानपान भी बदल गया है ।यहां बताया कि बेटी के बाप ने संबंधियों से तय कर दिया कि कोई भी बराती शराब पीकर नहीं आयेगा। लड़का 22 वर्ष और लड़की 18 वर्ष की थी। पहली बार शहरों की तरह बिंद बीनणी ने खुले मुंह एक दूसरे को वरमाला डालीऔर फोटो खिंचवाई ।बारातियों को पहले दिन लड्डू पूडी तथा दूसरे दिन मोती पाक, गुलाब सकरी परोसी गई।इससे शादी में एक ने भी शराब नहीं पी। प्रत्येक बराती को जान जुआरी के 5 रुपएदिए गए। इस गांव को नए स्वरूप में डालने की प्रबल इच्छा है व चेतना भी जगी है।
संकलनकर्ता: जितेंद्र सिंह शेखावत व (पूजा सिंह) 9829266088
सहयोगी: मनीष सोनी, प्रवक्ता रामगढ़ बांध बचाओ समिति
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