आयुष शर्मा “अधिवक्ता” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार ने जिस छोटे से स्वरूप में की थी, वह आज शताब्दी वर...
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार ने जिस छोटे से स्वरूप में की थी, वह आज शताब्दी वर्ष (1925–2025) तक पहुँचते-पहुँचते एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। इस शताब्दी वर्ष का महत्व केवल संगठन के इतिहास या उपलब्धियों को गिनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण, सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की यात्रा का प्रतीक है। शताब्दी वर्ष हमें आत्मचिंतन, आत्मगौरव और आत्मसंघटन का अवसर देता है।
शताब्दी वर्ष का महत्व
1. त्याग और तपस्या की गाथा
1925 से 2025 तक का यह शताब्दी काल केवल समय की गणना नहीं है, बल्कि हज़ारों स्वयंसेवकों के त्याग, तपस्या और समर्पण का इतिहास है। संघ ने न कभी प्रचार को महत्व दिया और न ही व्यक्तिगत प्रसिद्धि को। कार्यकर्ताओं ने निस्वार्थ भाव से अपना जीवन राष्ट्र के चरणों में अर्पित किया। इस शताब्दी वर्ष पर उन सभी अग्रजों का स्मरण करना आवश्यक है, जिनके परिश्रम ने संघ को विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन बनाया।
2.संस्थापकों और कार्यकर्ताओं का स्मरण
शताब्दी वर्ष हमें यह अवसर देता है कि हम डॉ. हेडगेवार, श्री गुरुजी गोलवलकर और अन्य महापुरुषों को श्रद्धांजलि अर्पित करें। इनके नेतृत्व में संघ ने विपरीत परिस्थितियों में भी संगठन को जीवंत बनाए रखा। साथ ही लाखों गुमनाम स्वयंसेवकों को भी स्मरण करना जरूरी है, जिन्होंने शाखाओं, सेवा कार्यों और सामाजिक अभियानों के माध्यम से समाज में संस्कार और संगठन की जड़ें गहरी कीं।
3.नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा
शताब्दी वर्ष का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यह नई पीढ़ी को प्रेरित करता है। आज का युवा तकनीकी रूप से दक्ष है, लेकिन उसे दिशा और उद्देश्य की आवश्यकता है। संघ के संस्कार, अनुशासन और सेवा की परंपरा युवाओं को राष्ट्र निर्माण के लिए सही मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है। शताब्दी वर्ष का आयोजन युवाओं के लिए एक संदेश है कि उन्हें केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी जीना है।
4. सांस्कृतिक महाशक्ति बनने का संकल्प
आज भारत केवल एक राजनीतिक राष्ट्र-राज्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। संघ ने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि हमारी असली शक्ति हमारी संस्कृति है। “वसुधैव कुटुंबकम्” का संदेश, परिवार व्यवस्था की मजबूती, अध्यात्म और प्रकृति के प्रति आदर – ये सभी विशेषताएँ भारत को विश्व में अद्वितीय बनाती हैं। शताब्दी वर्ष का महत्व इस संकल्प को दृढ़ करना है कि भारत केवल आर्थिक या सामरिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी विश्व का पथप्रदर्शक बने।
भविष्य की दिशा
सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यह गाथा शताब्दी वर्ष पर आकर थमती नहीं है। बल्कि, यह और भी प्रखर होकर भविष्य की ओर बढ़ती है। आने वाले समय में संघ और समाज की भूमिका इन क्षेत्रों में और भी महत्त्वपूर्ण होगी।
1. पर्यावरण संरक्षण : प्रकृति को पूज्य मानने वाली संस्कृति का विस्तार
भारतीय संस्कृति में प्रकृति को माँ के समान पूजनीय माना गया है। वृक्षों, नदियों, पर्वतों और पशु-पक्षियों के प्रति आदर हमारी परंपरा का हिस्सा है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु संकट से जूझ रही है, तब भारत अपनी सांस्कृतिक दृष्टि से समाधान प्रस्तुत कर सकता है।
संघ और उसके प्रेरित संगठनों को पर्यावरण संरक्षण के जनआंदोलन खड़े करने होंगे।
वृक्षारोपण, जल संरक्षण और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में समाज को जागरूक बनाना होगा।
“पृथ्वी परिवार” की संकल्पना को व्यवहार में उतारकर भारत विश्व को मार्गदर्शन दे सकता है।
2. महिला सशक्तिकरण : समाज जीवन में महिला की महत्त्वपूर्ण भूमिका
भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति और सम्मान का स्थान दिया गया है। किंतु सामाजिक विसंगतियों और पाश्चात्य प्रभाव के कारण कहीं-कहीं महिला का योगदान सीमित कर दिया गया। भविष्य की दिशा यही है कि—
महिला शिक्षा और नेतृत्व को बढ़ावा दिया जाए।
समाज जीवन के हर क्षेत्र में महिला की भागीदारी सुनिश्चित हो।
राष्ट्र सेविका समिति और अन्य मंचों के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया और भी प्रखर बने।
परिवार और समाज में “नारी ही नारायणी शक्ति है” की भावना पुनः स्थापित की जाए।
3. युवा जागरण : नई पीढ़ी को संस्कारित और राष्ट्रनिष्ठ बनाना
युवा किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति होते हैं। भारत आज विश्व का सबसे युवा देश है। यदि यह युवा सही दिशा में आगे बढ़े तो भारत की प्रगति को कोई रोक नहीं सकता।
शाखाओं और छात्र संगठनों के माध्यम से युवाओं में अनुशासन, सेवा और नेतृत्व क्षमता का विकास करना होगा।
डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग करके युवाओं को भारतीय संस्कृति और इतिहास से जोड़ना होगा।
खेल, विज्ञान, कला और साहित्य में युवाओं को राष्ट्रभक्ति की भावना से प्रेरित करना होगा।
इस तरह युवाशक्ति भारत को “विश्वगुरु” बनाने में मुख्य भूमिका निभाएगी।
4. विश्वकल्याण : भारत को केवल शक्ति सम्पन्न राष्ट्र ही नहीं, बल्कि आदर्श बनाना
भारत की संस्कृति का मूल भाव है—“सर्वे भवन्तु सुखिनः”। इसलिए भारत का उदय केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी होना चाहिए।
भारत को केवल आर्थिक और सैन्य शक्ति नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में उभरना होगा।
“एकात्म मानववाद” और “वसुधैव कुटुंबकम्” जैसे विचार विश्व की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं।
संघ और उसके कार्यकर्ताओं की भूमिका होगी कि वे भारत के सांस्कृतिक आदर्शों को विश्व स्तर पर प्रसारित करें।
संघ का शताब्दी वर्ष हमें अतीत की गौरवगाथा का स्मरण कराता है और भविष्य की दिशा तय करने की प्रेरणा भी देता है। यह वर्ष केवल उत्सव मनाने का नहीं, बल्कि संकल्प लेने का है—
त्याग, तपस्या और समर्पण की परंपरा को आगे बढ़ाने का।
नई पीढ़ी को संगठन, सेवा और संस्कार की ओर प्रेरित करने का।
भारत को सांस्कृतिक महाशक्ति और विश्व का पथप्रदर्शक बनाने का।
जब भारत अपने शताब्दी वर्ष को गर्व के साथ मनाएगा, तब यह केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उत्सव नहीं होगा, बल्कि पूरे राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पर्व होगा। यही संघ शताब्दी वर्ष का वास्तविक महत्व और भविष्य की दिशा है।
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